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गुजरे जमाने के ये ह्र्दयस्पर्शी भावना प्रधान अमर गीत आज भी दिलो की गहराई मे कही बैठे हुए है जिनमे इश्क, प्रेम, प्यार का अर्थ एक पूजा ,एक तपस्या था और आज
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सिनेमा समाज का दर्पण होता है और आज सिनेमा से लेकर समाज तक मे जिस तरह इस प्रेम की संवेदनशीलता को खत्म कर दिया है वो निसंदेह हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी है |
अभी कुछ दिन की बात है मेरे पडोस मे रहने वाली शोभा शर्मा जी मेरे घर आई और खुश होकर बताने लगी कि “मेरा बेटा शादी कर रहा है, लडकी कानपुर की है”|
मैंने परीस्थितिजन्य कौतुहल से उनको टोकते हुए कहा -“क्यूँ वो तो अपने ही शहर कि किसी लडकी से शादी कर रहा था” | अरे -कहाँ , वो तो उसका टाइमपास लव था | सिर घूम गया – टाइमपास लव | अपने स्मार्ट बेटे की स्मार्टनेस दिखाकर शोभा जी तो चली गयी किन्तु प्यार की इस नई परिभाषा ने मेरा टाइम पास करना मुश्किल करदिया | हम टाइमपास करने के लिए किताबे पढ़ते है , टी.वी देख लेते है, घूमते है और आज के बच्चे टाइमपास लव करने लगे है | कितने स्मार्ट है हमारे बच्चे ……. किसी के लिए तो लव टाइमपास है परन्तु किसी के लिए ये जीवन -मरण का प्रश्न बन जाता होगा | युवाओ मे बढ़ती हुई आत्महत्या की प्रवृति, कुंठा, हत्या, तेजाब फेकना जैसी घटनाये कही न कही इसी सोच का परिणाम है | कितने परिवार तबाह हो जाते होगे |
लव, प्यार, प्रेम, इश्क दिल की गहराईयों से उपजी एक ऐसी सुखद अनुभूति है जिसका समागम आत्मा मे जाकर होता है | सच्चा प्रेंम तो इश्वरतुल्य माना जाता है | प्रेम त्याग व तपस्या है और प्रेम का यही ईश्वरीय स्वरूप आनंद प्रदाता भी है किन्तु आज तो प्रेम को बच्चो ने एक रोडशो बना कर रख दिया है | बाजारवाद ने तो प्रेम को एक मार्केटिंग की विषयवस्तु बना दिया है और तो और अब लवगुरु आ गये हैं | मैग्जीनो के पन्नो पर प्यार करने के टिप्स है मतलब कि पहले जहाँ – “प्यार किया नही जाता हो जाता है वहीं आज प्यार होता नही किया जाता है” टाइमपास करने के लिए |
समय बदला सोच बदली और संस्कारो ने भी आधुनिकता का चोगां पहन लिया | यह सच है कि परिवर्तन उन्नतिशील समाज का अभिन्न अंग है किंतु इस तरह के नकारात्मक परिवर्तन से तो हमारा सामाजिक व पारवारिक ढांचा तहस-नहस हो जायेगा | आधुनिकता का मतलब बेशर्मी नही है | रिश्ते -नातो व भावनाओ से खिलवाड़ नही है | प्रेम मोबाइल का सिमकार्ड भी नही है कि जब चाहा नम्बर बदल दिया |
सवाल उठता है कि आगे बढ़ने की अंधी दौड़ मे हम कहाँ भटक गये ? क्या हम पूर्वजो से मिली सांस्कृतिक विरासत को सहेज व सजों नही पाए ? क्या अंधी दौड़ के अंत का आरम्भ हो चुका है और क्या शोभा जी जैसे लोग ही वर्तमान व भविष्य के बीच की कमजोर कड़ी है ? क्या ऐसे लोग बच्चों को रूपया कमाने की मशीन बनाकर खड़ा नही कर देते ? क्या हमे अपनी महान भारतीय संस्कृति को बचाने का प्रयास नही करना होगा ? अपने बच्चो की पौध के समुचित विकास के लिए उन्हें प्रदूषित वातावरण से बचाना होगा | प्रेम करना पाप नही है किन्तु टाइमपास लव हमारे संस्कारो मे क्षम्य भी नही है |
एक प्रश्न जो अभी भी मुझे झकझोर रहा है और उसका उत्तर आप सभी बुद्धिजीवियों से पाने की आशा रखती हूँ कि इस बिगड़ते सामाजिक माहौल मे क्या अब सोचने को कुछ नही बचा है ? क्या देर बहुत हो चुकी है ?
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