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फैला मेरे मनाकाश पर
नीरवता का है विस्तार ,
आवृत अखिल धरा पर
जैसे नीले नीरव नभ विशाल
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न चमक कोई न दमक कोई
न जीवन मे जगमग है |
असंख्य घुमाव मे विस्मरत ,
मेरे जीवन का मग है |
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नीले नीरव नभ पर भी ,
चंदा तारो का बसेरा है |
क्यूँ मेरे मानसपटल पर
फिर छाया पूर्ण अँधेरा है ?
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साँझ ढले शिथलाता सूरज
दूर कही छिप जाता है |
तारो संग विहसता चंदा
धरती पर खेल रचाता है |
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हतभाग्य है धरा तुम्हारा
कैसे तेरे मीत है ?
वही छलावा देते तुमको
जिनसे तेरी प्रीत है |
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नही चाहता मन ये मेरा
आने जाने का मिथ्या नर्तन
सुकुमार इक प्रथम छवि ही
चिरासीन हो , मेरे मन दर्पण |
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बंद कली मे सुरभि जैसा
प्रात : ओस की बूंदों जैसा |
सागर की लहरों सा चंचल
मधुर -२ चिर प्रेम अमर हो |
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– अमिता श्रीवास्तव
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